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आत्मनिवेदन

पुनर्वसु आत्रेय द्वारा उपदिष्ट एवं उनके शिष्य अग्निवेश द्वारा प्रणीत अग्निवेशतन्त्र महर्षि चरक द्वारा प्रतिसंस्कृत होने के बाद चरकसंहिता के नाम से आयुर्वेदजगत में विख्यात हुआ। इसके पश्चात् कालपरिणामवश खण्डित हुए इस ग्रन्थ के लगभग एक तिहाई भाग (चिकित्सास्थान-१७ अध्याय एवं कल्पस्थान और सिद्धिस्थान) का दृढबल द्वारा सम्पूरण करते हुए पुनः प्रतिसंस्कार किया गया। सम्प्रति यह ग्रन्थ आयुर्वेदवाङ्मय में कायचिकित्सा के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ के रूप में जाना जाता है जिसकी महत्ता का आख्यान परवर्ती आचार्यों ने ....श्रेष्ठः....चरकस्तु चिकित्सिते कहकर किया है। यद्यपि इस ग्रन्थ में अष्टाङ्ग आयुर्वेद के सभी विषयों का न्यूनातिरेक रूप से वर्णन प्राप्त होता है तथापि कायचिकित्सा का विशेष विवेचन होने के कारण ही इस ग्रन्थ को कायचिकित्सा के आकर ग्रन्थ के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है।

चरकसंहिता के नाम से प्रसिद्ध यह ग्रन्थ ८ स्थानों और १२० अध्यायों (सूत्रस्थान-३०, निदानस्थान-८, विमानस्थान-८, शारीरस्थान-८, इन्द्रियस्थान-१२, चिकित्सास्थान-३०, कल्पस्थान-१२ एवं सिद्धिस्थान-१२ अध्यायों) में विभक्त है जिसके सूत्रस्थान में स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्यरक्षण एवं रोगियों के रोगनिवारण के लिए अभीष्ट आयुर्वेद के मूलभूत सिद्धान्तों को सूत्रात्मक शैली में गुम्फित किया गया है तदुपरान्त निदानस्थान में छः शारीरिक एवं दो देहमानस कुल आठ रोगों का निदानपञ्चकात्मक वर्णन किया गया है।

चिकित्सा में दोष-भेषज-देश-काल-बल-शरीर-सार-आहार-सात्म्य-सत्त्व-प्रकृति-वय-अग्नि आदि भावों की विविध अवस्थाओं के आधार पर अंशांशकल्पना करके तदनुसार चिकित्सा करने पर ही सम्यक् चिकित्सालाभ मिलता है, अतः इनके अंशांशविकल्प को विमानस्थान में सुनियोजित तरीके से दर्शाया गया है, ताकि चिकित्सक इसके द्वारा सम्यक् मार्गदर्शन प्राप्त करके चिकित्सा में सफल हो सके।

सत्त्वात्मशरीर को इकाई रूप में चिकित्सा का अधिष्ठान मानने वाले आचार्य चरक ने इन तीनों का विशद विवेचन शारीरस्थान में किया है तथा रोगोत्पत्ति में शरीर और मन के पारस्परिक सम्बन्ध को स्थापित करते हुए कहा है। यथा- शरीरं हि सत्त्वमनुविधीयते सत्त्वं च शरीरम्॥ (च.शा.४/३६)

चिकित्सा करते समय बहुत बार असाध्य रोगग्रस्त रोगियों की मृत्यु हो जाती है, ऐसी स्थिति में चिकित्सक को अपयश का सामना करना पड़ता है, यथा- अर्थविद्यायशोहानिमुपक्रोशमसंग्रहम्। प्राप्नुयात् नियतं वैद्यो योऽसाध्यं समुपाचरेत्॥ (च.सू.१०/८) अतः मृत्युसूचक लक्षणों का चिकित्सक को बोध कराने वाले इन्द्रियस्थान का विवेचन चिकित्सास्थान से पूर्व किया गया है। तदुपरान्त चिकित्सास्थान में सर्वप्रथम रोगप्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि करके शरीर और मन को बल प्रदान करने वाली रसायन और वाजीकरण विधाओं को दो पृथक्-पृथक् अध्यायों में वर्णित करके तत्पश्चात् ज्वर आदि अन्य रोगों का निदान-चिकित्सा और पथ्यापथ्य सहित विस्तृत वर्णन किया है।

चूंकि सभी रोगों की चिकित्सा में संशोधन (पञ्चकर्म) का भूरिशः प्रयोग किया गया है अतः पञ्चकर्म का साङ्गोपाङ्ग वर्णन करने के लिए चिकित्सास्थान के पश्चात् पृथक्शः कल्पस्थान और सिद्धिस्थान की रचना की गई है। इसके पीछे आचार्य का सर्वमान्य सिद्धान्त यह है कि संशमन चिकित्सा से नष्ट हुए रोग पुनः उत्पन्न हो सकते हैं किन्तु संशोधन द्वारा नष्ट हुए रोग पुनः उत्पन्न नहीं होते। यथा- दोषाः कदाचित्कुप्यन्ति जिता लङ्घनपाचनैः। जिता संशोधनैर्ये तु न तेषां पुनरुद्भवः॥ (च.सू.१६/२०-२१)

संक्षेप में कहा जा सकता है कि चरकसंहिता में विषयों का यथास्थान सन्निवेश होने के कारण ही यह संहिता चिकित्साजगत में महत्त्वपूर्ण स्थान को प्राप्त है। इस संहिता में कायचिकित्सा के अन्तर्गत समाविष्ट सभी पुरातन, वर्तमानकालिक एवं भविष्य में उत्पन्न होने वाले रोगों के चिकित्सासूत्र उपलब्ध हो जाते हैं, आवश्यकता इस बात की है कि उन सूत्रों को समझकर एवं सतत अनुसन्धान द्वारा दोषविकृति (दोषांशबल), विकारप्रकृति, अधिष्ठान और निदान के आधार पर विविध नैदानिक विधाओं, चिकित्सा के तरीकों एवं औषधियों का सम्यक् प्रयोग एवं निरन्तर अन्वेषण किया जाए, जिसका सूत्रात्मक संकेत अधोलिखित सूत्र में निर्दिष्ट है। यथा-

विकारनामाकुशलो न जिह्रीयात् कदाचन। न हि सर्वविकाराणां नामतोऽस्ति ध्रुवा स्थितिः॥ स एव कुपितो दोषः समुत्थानविशेषतः। स्थानान्तरगतश्चैव जनयत्यामयान् बहून्॥ तस्माद्विकारप्रकृतीरधिष्ठानान्तराणि च। समुत्थानविशेषांश्च बुद्ध्वा कर्म समाचरेत्॥ (च.सू.१८/४४-४६)

चरकसंहिता का आद्यन्त अध्ययन किये बिना कायचिकित्सा के साङ्गोपाङ्ग ज्ञान की प्राप्ति कठिन ही नहीं अपितु असम्भव है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कुशल कायचिकित्सक बनने के लिए इस संहिता का वाक्यशः, वाक्यार्थशः एवं अर्थावयवशः अध्ययन अत्यावश्यक है। स्वस्थ के स्वास्थ्य संरक्षण एवं रोगी के रोगनिवारण हेतु सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक दोनों पक्षों का जितना विशद विवेचन इस संहिता में प्राप्त होता है उतना अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं है। यथा-

यस्य द्वादशसाहस्री हृदि तिष्ठति संहिता। सोऽर्थज्ञः स विचारज्ञश्चिकित्साकुशलश्च सः॥ रोगांस्तेषां चिकित्सां च स किमर्थं न बुध्यते। चिकित्सा वह्निवेशस्य सुस्थातुरहितं प्रति॥ यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्ववित्। (च.सि.१२/५२-५३)

प्राचीन काल में गुरुशिष्यपरम्परा में सभी आचार्य अपने शिष्यों को संहिताओं का अध्ययन कराते समय वाक्यशः, वाक्यार्थशः एवं अर्थावयवशः शैली का उपयोग करते थे। सतत परिश्रमशील शिष्य भी गुरु की आज्ञानुसार संहिता-ग्रन्थों का सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक दोनों दृष्टियों से साङ्गोपाङ्ग ज्ञान प्राप्त करते थे। परवर्ती काल में संहिताओं के गूढ एवं अस्फुट अर्थों को भलीभांति समझने हेतु उन पर व्याख्या लिखने का कार्य आरम्भ हुआ। चरकसंहिता पर सर्वप्रथम भट्टारहरिचन्द्र ने चरकन्यास नामक व्याख्या लिखी। इसके पश्चात् चरकसंहिता पर अनेक व्याख्याएँ लिखी गई। कालक्रम से उनमें से अधिकतर व्याख्याएँ पूर्णतः विलुप्त हो गई। इन लुप्त व्याख्याओं के अवशेष हमें उपलब्ध टीकाओं में आज भी मिलते हैं। सम्प्रति चरकसंहिता पर भट्टारहरिचन्द्र की चरकन्यास, जेज्जट की निरन्तरपदव्याख्या, शिवदाससेन की तत्त्वचन्द्रिका और योगीन्द्रनाथसेन की चरकोपस्कार व्याख्याओं का कुछ भाग एवं चक्रपाणिदत्त की आयुर्वेददीपिका तथा गङ्गाधर राय की जल्पकल्पतरु व्याख्याएँ पूर्णतः (पाण्डुलिपि या प्रकाशित प्रति या दोनों रूप में) उपलब्ध हैं। इनमें भी चक्रपाणिदत्त की आयुर्वेददीपिका व्याख्या का ही चरकसंहिता के पठन-पाठन में अधिक प्रचलन है। आयुर्वेददीपिका व्याख्या के बारे में विद्वज्जनों की मान्यता यह है कि इसके सहित चरकसंहिता का अध्ययन किये बिना आयुर्वेद के रहस्यों को समझना अत्यन्त दुरूह कार्य है।

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